जबकि औरंगजेब ने मंदिर को तोड़ने का आदेश दिया था, मस्जिद बनाने का नहीं
-सुरेश गांधी
वाराणसी : ज्ञानवापी प्रकरण इन दिनों देश-दुनिया से लेकर आमजनमानस व मीडिया की सुर्खियां बनी हुई है। मामला कितना संवेदनशील है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकताहै कि चाहे जिला न्यायालय, वाराणसी हो सर्वोच्च न्यायालय हो या उच्च न्यायालय हर जगह वादी-प्रतिवादी अपनी-अपनी दलीेले दे रहे हैं। हिन्दु पक्ष के अधिवक्ता तमाम तर्को व साक्ष्यों के साथ ज्ञानवापी को बाबा विशेश्वरनाथ मंदिर बताने पर अड़े है, तो मुस्लिम पक्ष सिर्फ और सिर्फ वर्शिप एक्ट 1991 की दुहाई दे रहा है। न्यायालय के दलीलों व तर्को की मानें तो ज्ञानवापी प्रकरण वर्शिप एक्ट के अंर्तगत आता ही नहीं, फिर भी बहस इसी के इर्द-गिर्द घूम रही है। बता दें, मंगलवार की जोरदार बहस के बाद पोषणीयता पर ही अब 21 जुलाई को अगली सुनवाई होगी। मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में सीनियर अधिवक्ता अश्विनी चौबे ने वादी संख्या दो लक्ष्मी साहू की ओर से अपनी दलील दिया कि इस्लामिक कानून के जिस जमीन पर मस्जिद बनाई जाती है उसका मालिकाना हक होना चाहिए और वह समतल होनी चाहिए। उस जमीन पर पहले से कोई ढांचा नहीं होना चाहिए। जबकि ज्ञानवापी में मंदिर तोड़कर उस पर ढांचा बनाया गया है। जबकि जिला न्यायालय वाराणसी में वादी संख्या 1 राखी सिंह की ओर से वकील शिवम गौड़, अनुपम द्विवेदी और मान बहादुर सिंह ने अदालत के सामने अपनी दलील रखी कि इतिहास में दर्ज है कि औरंगजेब ने काशी विश्ननाथ मंदिर को सिर्फ तोड़ने का फरमान दिया था। उसने वहां मस्जिद बनाने का फरमान नहीं दिया था। यह तो स्थानीय लोगों ने मंदिर के ऊपर एक ढांचा बना दिया। इसमें नमाज करने लगे और उसे मस्जिद कहने लगे। ऐसे किसी ढांचे को मस्जिद कैसे कह सकते हैं।
जिला जज डा. अजय कृष्ण विश्वेश की अदालत में सुनवाई के दौरान हिन्दू पक्ष के अधिवक्ताओं ने कहा कि ज्ञानवापी परिसर में मंदिर था यह इतिहास कहता है। इस मुकदमे में एडवोकेट कमिश्नर की कार्रवाई के बाद तैयार रिपोर्ट में भी इस बात का जिक्र है कि परिसर में जगह-जगह मंदिर होने चिह्न मिले हैं। इसे तोड़कर इसके ऊपर एक ढांचा बनाया गया है। अब नीचे मंदिर है तो ऊपर बनाए गए हिस्से को मस्जिद कहा जाता है। उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम, 1991 के मुताबिक किसी भी स्थान की प्रकृति (मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च आदि) तय होने के बाद ही यह तय किया जाता है कि उस स्थान पर यह लागू होता है या नहीं। ऐसे स्थान पर कैसे लागू होगा जहां एक हिस्सा मंदिर और एक हिस्से को मस्जिद कहा जा रहा है। मान बहादुर सिंह ने कहा कि हिंदू धर्म में भगवान का एक रूप नरसिंह का है। इसमें रूप में भगवान आधे मानव और आधे पशु रूप में है। ऐसे रूप की स्पष्ट व्याख्या कैसे की जा सकती है। वह मनुष्य हैं ना ही पशु। उन्हें तो सिर्फ नरसिंह की कहा जा सकता है। ठीक इसी तरह ज्ञानवापी परिसर के ढांचे की स्पष्ट व्याख्या कैसे होगी? यह तो अतिक्रमण किया हुआ एक स्थान है। जहां लोग नमाज कर रहे हैं और उसे ही मस्जिद कह रहे हैं। मस्जिद तो एक पवित्र स्थान होता है। इसकी स्थापना एक पवित्र उद्देश्य से की जाती है। किसी जगह अतिक्रमण करके बनाए गए ढांचे को मस्जिद नहीं कह सकते हैं। वहां की गई नमाज कुबूल नहीं होती है। सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में जिक्र है कि किसी भी स्थान पर नमाज पढ़ लेने से वह स्थान मस्जिद नहीं हो जाती है।
प्रतिवादी पक्ष की ओर से भगवान के निराकार और साकार रूप पर उठाए गए प्रश्न के जवाब में मान बहादुर सिहं ने अदालत से कहा कि सनातन धर्म को मानने वाले निराकार और साकार दोनों रूप में भगवान की पूजा करते हैं। इससे उनका आध्यात्मिक महत्व ना कम होता है ना ही बदलता है। भगवान के निराकार और साकार स्वरूप को तार और उसमें दौड़ने वाली बिजली के समझा जा सकता है। जिस तरह तार तो नजर आता है लेकिन उसमें दौड़ने वाली बिजली नहीं दिखती है। इसलिए यह मस्जिद नहीं हो सकता है। साथ ही बताया कि उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम, 1991 दंडात्मक कानून के तहत आता है। इसमें तीन साल तक की सजा का प्रावधान है। एक ढांचे में मूर्ति का प्राण प्रतिष्ठा के बाद ही उसे मंदिर कहा जाता है जबकि मस्जिद की पहली ईंट ही उसके नाम से रखी जाती है।