सम्पूर्ण विश्व में जहां कही भी स्वयभूलिंग है, अपने आप में उसे महातीर्थ का दर्जा है। धार्मिक नगरी काशी और प्रयाग के मध्य भदोही में भी परमपावनी सुरसरी गंगा के किनारे कुए में यह ज्योर्तिलिंग लिंग प्रकट है। अपनी पौराणिकता के चलते प्राचीनतम शिवलिंगों में से एक है। आस्था और विश्वाश का अटूट उदाहरण अपने समेटे बाबा सेमराधनाथ के नाम से जाना जाता है। या यूं कहे अज्ञातवास के दौरान पांडवो के लीला का केंद्र रहा भदोही शिव के भक्तों की अगाध श्रद्धा का केंद्र इस समय बाबा सेमराधनाथ है। मंदिर में स्वयंभू शिवलिंग पर हर साल सावन के सोमवार को लाखों कांवड़िये व् श्रद्धालू शिवलिंग पर जलाभिषेक करते है। माना जाता है कि यहां शिवलिंग के दर्शन और अभिषेक से हर व्याधि व अड़चन से छुटकारा मिल जाता है। पिछले जन्म के पाप कर्मो का प्रभाव भी क्षीण हो जाता है। कहते है अज्ञातवास के दौरान पांचो पांडवो ने भी यहां रहकर भगवान सेमराध की पूजा अर्चना की थी। इस समय यहां कावरियो का तांता लगा है।
-सुरेश गांधी
सम्पूर्ण विश्व में जहां कहीं ऽभी स्वयंभूलिग अथवा ज्योतिर्लिंग है, अपने आप में उसे महातीर्थ का दर्जा मिला हुआ है। श्री सेमराधनाथ धाम भी ज्योतिर्लिंग अथवा स्वयंभूलिंग के रुप में विराजमान है। यह दिव्य व मनोरम स्थल भदोही मुख्यालय से 18 किमी दूर जंगीगंज-धनतुलसी मार्ग पर दक्षिण-पश्चिम त्रिकोण पर परमपावनि सुरसरि गंगा के किनारे एक कुंए में प्रकट है। मंदिर में जो शिवलिंग है, वह लगभग एक इंच दक्षिण की ओर झुका हुआ है। मां पावर्ती भगवान शिव के बाएं भाग में विराजती है, तो उनका दक्षिण ओर होना स्वाभाविक ही है क्योंकि शक्ति के अभाव में शिव शव हो जाते हैं। इस शिवलिंग में ‘समता’ का अनुठा शिव शक्ति का स्वरुप सम है, क्योंकि शिवलिंग का आकार अर्धनारीश्वर है। यही स्थान सेमराधनाथ धाम के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि द्वापर युग के महाभारत काल के राजा पौण्ड्रक के अत्याचार को खत्म करने के लिए स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चलाया तो चारों तरफ त्राहि-त्राहि मच गया। इससे काशी भी अछूता नहीं रहा। बाद में श्रीकृष्ण व शिव के बीच हुए गुप्त ज्ञान के बाद भगवान शिव ने काशी से त्रिशूल छोड़ा और श्रीकृष्ण ने प्रयाग से सुदर्शन, दोनों सेमराध में ही टकराए। इनके टकराहट से उत्पन्न अलौकिक प्रकाश के बीच शिवलिंग रुप बना और पृथ्वी के नीचे समा गया। जो कालांतर में भगवान शिव की प्रेरणा से एक व्यापारी को स्वप्न के माध्यम से जानकारी मिली और उसने खुदाई कराई तो भगवान भोलेनाथ शिवलिंग रुप में प्रकट हो गए, जो सतह से 25 फुट नीचे थी. व्यापारी ने कुए में ही मंदिर निर्माण शुरू करा दिया जो आज विशाल मंदिर बन गया है।
मंदिर के पुजारी का कहना है की द्वापर युग में महाभारत काल के राजा पौंड्रिक के अत्याचार इतने बढ़ गए थे की वह स्वयं को भगवान कृष्ण कहता था और प्रजा से स्वयं का पूजा करने के लिए बाध्य करता था। लेकिन प्रजा ने उसे कृष्ण मानने से इनकार करते हुए कहा की तुम द्वारिकाधीश से युद्ध करो विजयी हुए तो हम तुम्हे द्वारिकाधीश मानेगे। इस चुनौती को सुनकर पौंड्रिक आग बबूला हो उठा और द्वारिकाधीश पर आक्रमण कर दिया। क्रोधित श्री कृष्ण ने जब अपना सुदर्शन चलाया तो चारो तरफ त्राहि-त्राहि मच गया। लोगो के सिर कटने लगे। इससे काशी भी अछूता नहीं रहा। इस दुर्गति को देख भगवान शिव श्री कृष्ण को समझाए तथा गुप्तज्ञान का भेद बताए। वासुदेव बोले हे शंकर आप काशी से त्रिशूल छोड़े हम प्रयाग से सुदर्शन, जहा दोनों टकरायेंगे वही शिव का वास होगा। इनके टकराहट से उत्पन्न आलौकिक प्रकाश के बीच शिवलिंग रूप बना और पृथ्वी के नीचे समा गया। इतना ही नहीं मंदिर में जो शिवलिंग है वह एक इंच दछिन की ओर झुका है पार्वती भगवान शिव के बाई ओर विराजती है तो उनका दक्षिण ओर होना स्वाभाविक है। क्योकि शक्ति के अभाव में शिव शव हो जाते है। इसीलिए इस शिवलिंग को अर्धनारीश्वर कहा गया है।
मंदिर की भव्यता के बारे में पुजारी ने बताया कि एक व्यापारी नाव से अपना सामन ले कर जा रहा था। अचानक उसकी नाव यही गंगा नदी में फंस गई। काफी प्रयास के बाद भी जब नहीं निकली तो उसने इसी स्थान पर रात्री विश्राम करने की सोची और सो गया। रात में उसे स्वपन में भगवान शिव का दर्शन हुआ और भोले ने उससे कहा तुम इस स्थान पर खुदाई करवाओ यहां शिवलिंग है। व्यापारी ने ऐसा ही किया और उसने अगले दिन खुदाई कराई तो उसे एक शिवलिंग दिखा। जिसके बाद उसने शिवलिंग को अपने साथ ले जाने के बारे में सोचा और जितना पास जाता शिवलिंग उतना ही अंदर चला जाता। जिसके बाद उसने यहीं पर भोले का मंदिर बनवा दिया। जिस कारण आज भी वो मंदिर एक कुंए में स्थापित है। श्रद्धालू विमल बरनवाल कहते हैं कि भगवान शिव बहुत जल्द प्रसन्न होने वाले हैं। जो भी भक्त मनोकामना पूर्वक कांवड़ लाकर यहां जल चढ़ाता है उसकी न केवल यात्रा बिना अड़चन के पूरी हो जाती है बल्कि मनोकामना भी पूर्ण होती है। 40 दिन तक प्रतिदिन मन्दिर में दीपक जलाने व ओम नमः शिवाय का जाप करते हुए शिवलिंग का अभिषेक करने से हर मनोकामना पूरी होती है। मंगलवार के मंगला गौरी के व्रत से युवतियों के विवाह में आ रही अड़चनें दूर होती हैं और मनभावन वर मिलता है। मन्दिर में दिन में दो बार सुबह-शाम आरती होती है।
कल्पवास का है खासा महत्व
सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा ने इसी गंगा तट पर पौष पूर्णिमा से शिवरात्रि तक रहकर कल्पवास किया था। समस्त देवी-देवता उनके कल्पवास दर्शनार्थ यहां एकत्र हुए, जिसमें गंगा क्षेत्र ध्वज पताकाओं से पट गया। चहुंओर वेद मंत्रोचार, घंट-घड़ियाल व शंख ध्वनि से गुंजायमान रहा। उनका हवन-कुंड व यज्ञ स्थल ही इस देवभूमि का प्रतीक बना और तभी से यह क्षेत्र प्रचलित हो गया। यहां ‘माघ मास’ में प्रतिवर्ष सेमराध में माघ मेले का आयोजन होता है। यहां बड़ी संख्या में प्रदेश ही नहीं देश के कोने-कोने से लोग आते है। पूरे मास तक यहां ठहरकर मनोरंजन के साथ ही अपना ज्ञानवर्धन भी करते है। गंगा के किनारे स्वयंभू लिंग के रुप में विराजमान बाबा सेमराधनाथ धाम मेले की महत्ता एवं रोचकता को भव्य बनाता है। यहां विस्तृत बालूकामय भूभाग में झोपड़ियों व तम्बू-कनात से बसी नृत्य नवीन धर्मनिष्ठ नगरी का आकर्षण अनुपम हो उठता है। माघ महीने में गंगा स्नान का बहुत महत्व है। इस दौरान कल्पवास की महिमा न्यारी है। धार्मिक मान्यताओं में माहभर का यह कठिन तप जगत की खुशहाली एवं कायाकल्प के लिए किया जाता है। माहभर की साधना, तीन समय स्नान, एक समय भोजन, गंगाजल का सेवन एवं सत्संग कल्पवास के प्रमुख अंग है। कल्पवास को आयुर्वेद, मानसिक, वैचारिक एवं आरोग्य प्राप्ति के लिए किया गया वास बताता है। कल्पवासी यहां अपने लड़के-लड़कियों का विवाह, अपने रोगों का इलाज, प्रवचन, भजन, रामलीला, शिव स्तुति और कुछ शाम अच्छी बिताने के लिए भी आते हैं। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से कल्पवास, पूजा, यज्ञ, ध्यान, साधना एवं योग के माध्यम से सृष्टि एवं व्यक्ति के कायाकल्प की प्रक्रिया है। पुराणों में कहा गया है कि माघ मास में जगत के समस्त तीर्थ, देवी-देवता, गंधर्व, चारण, सिद्ध, ऋषि-मुनि सभी सेमराध में वास करते हैं। जो श्रद्धालु माघ महीने में यहां रहकर मकर स्नान करते हैं उन्हें सभी तीर्थो के स्नान का फल प्राप्त होता है।
वट वृक्ष
पद्म पुराण में ही सेमराध तट पर स्थित अक्षय वट के पत्तों पर भगवान विष्णु के शयन की बात भी कहीं गयी है। मेले में पहुंचने वाले श्रद्धालु वटवृक्ष की परिक्रमा भी करते है। इसके छाएं में बैठने से अद्भूत शांति व वांछित फल मिलता है। इस पुराण में कहा गया है कि कल्पवास के अंत में तेरह उत्तम ब्राह्मणों को भोजन, वस्त्र, दक्षिणा देकर व्रत का उद्यापन करना चाहिए। वर्तमान में तमाम लोगों में यह मान्यता है कि माघ स्नान से इस क्षेत्र में कल्पवास करने और ब्राह्मणों को भोजन कराने व शैया दान करने से पूण्य मिलता है। माघ माह में कल्पवास मेले के समय सेमराध में खुद उत्तरवाहिनी गंगा नदी के बीच अपना स्थान छोड़ देती है। ऐसा सालों से हो रहा है। क्षेत्रवासी इसे स्वयंभू भगवान सेमराधनाथ महादेव की कृपा मानते हैं।