महाराष्ट्र में राजनीतिक भूचाल आ गया है। उद्धव सरकार पर खतरा मंडरा रहा है। एमएलसी चुनाव में क्रॉस वोटिंग के बाद मंत्री और शिवसेना के सीनियर नेता एकनाथ शिंदे में ठन गयी है। ढाई साल बाद का हिन्दुत्व जाग गया है। दो टूक में शिन्दे ने कहा है शिवसेना बीजेपी के साथ गठबंधन कर सरकार बनाएं, वरना 26 बागी विधायक इस्तीफा दे सकते हैं। लेकिन सच तो यह है कि इन बागियों का हिन्दुत्व यूं ही नहीं जागा है, बल्कि उन्हें पता है कि अघाड़ी गठबंधन के भरोसे वह दुबारा चुनाव नहीं जीत सकते, क्योंकि शिवसेना का अस्तित्व ही हिन्दुत्व पर टिका है। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है क्या शिवसेना की अंदरूनी लड़ाई अब महाराष्ट्र सरकार पर बन आई है?
-सुरेश गंधी
महाराष्ट्र में उद्धव सरकार का जाना लगभग तय हो चुका है। शिवसेना के सीनियर नेता एकनाथ शिंदे गुजरात के सूरत में हैं. इधर महाराष्ट्र से दिल्ली तक सियासी हलचल तेज हो गई है. माना जा रहा है कि शिंदे एनसीपी, कांग्रेस व एमएआईएम संग शिवसेना के गठबंधन से नाराज हैं. बागी विधायकों में एकनाथ शिंदे के साथ गुजरात पहुंचने वाले नेताओं में महाराष्ट्र सरकार के दो मंत्री, शिंदे के बेटे भी शामिल हैं. एक निर्दलीय विधायक का नाम भी आया है. मतलब साफ है महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी सरकार खतरे में दिख रही है। दूसरी तरफ भाजपा के नेता और कुछ विधायक पूरे जोश में हैं. यह दावा तक कर दिया गया है कि महाराष्ट्र में फिर से देवेंद्र फडणवीस की सरकार होगी. हालांकि, बीजेपी के लिए यह इतना आसान नहीं होने वाला है. पहली बात तो यही है कि मंत्री एकनाथ शिंदे के साथ इतने विधायक बागी नहीं हुए है, जिससे वे लोग दलबदल विरोधी कानून से बच सकें. लेकिन भाजपा महाविकास अघाड़ी सरकार को गिराकर दोबारा होने वाले चुनाव में जीतकर सरकार जरुर बना सकती है.
फिलहाल, शिन्दे के हर अगले कदम पर महाराष्ट्र सरकार की सांस अटकी हुई है. शिवसेना, कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस की धुकधुकी बढी हुई है. ऐसे में ताजा घटनाक्रम में एकनाथ शिंदे ने ऐलान कर दिया है कि वे अब शिवसेना में नहीं लौटेंगे. उन्होंने कहा, मैं हिन्दुत्व के साथ हूं और शिवसेना में नहीं लौटूंगा. बता दें, महाराष्ट्र में शिंदे को मिलाकर कुल 26 विधायक बागी हुए हैं. इसमें कुछ निर्दलीय विधायक भी शामिल हैं. ये बागी विधायक दलबदल विरोधी कानून की जद में आ सकते हैं. दरअसल, शिवसेना के महाराष्ट्र में 55 विधायक हैं. इसका दो-तिहाई 36.6 बैठता है. अगर शिंदे के साथ 37 विधायक आ जाएं तो वे लोग दलबदल विरोधी कानून के दायरे से बाहर होंगे. लेकिन अभी ऐसा दिखाई नहीं पड़ता. यह बात बीजेपी को भी समझ आ रही है. बीजेपी की कोशिश रहेगी कि राज्य में दोबारा चुनाव कराए जाएं. फिर ज्यादा सीट जीतने की कोशिश करके सरकार बनाने की प्लानिंग बीजेपी की रहेगी. बीजेपी चाहती है कि फिर राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो. फिर राज्य में दोबारा चुनाव हों, जिसमें बीजेपी जीत दर्ज करे. महाराष्ट्र की विधानसभा में कुल 288 सदस्य हैं, इसके लिहाज से सरकार बनाने के लिए 145 विधायक चाहिए. शिवसेना के एक विधायक का निधन हो गया है, जिसके चलते अब 287 विधायक बचे हैं और सरकार के लिए 144 विधायक चाहिए. बगावत से पहले शिवेसना की अगुवाई में बने महा विकास अघाड़ी के 169 विधायकों का समर्थन हासिल था जबकि बीजेपी के पास 113 विधायक और विपक्ष में 5 अन्य विधायक हैं.
26 विधायकों में तानाजी सावंत, बालाजी कल्याणकर, प्रकाश आनंदराव आबिटकर, एकनाथ शिंदे, अब्दुल सत्तार, संजय पांडुरंग, श्रीनिवास वनगा, महेश शिंदे, संजय रायमुलकर, विश्वनाथ भोएर, संदीपन राव भूमरे, शांताराम मोरे, रमेश बोरनारे, अनिल बाबर, चिंमणराव पाटील, शंभूराज देसाई, महेंद्र दलवी, शाहाजी पाटील, प्रदीप जायसवाल, महेन्द्र थोरवे, किशोर पाटील, ज्ञानराज चौगुले, बालाजी किणीकर, भरतशेत गोगावले, संजय गायकवाड, सुहास कांदे शामिल है। एकनाथ शिंदे के साथ बगावत करने वाले 26 विधायक हैं, जो उद्धव सरकार के साथ थे. ऐसे में अब उद्धव सरकार से इन 26 विधायकों का समर्थन हटा देते हैं तो 143 विधायक बचते हैं. ऐसे में निर्दलीय व अन्य छोटी पार्टियों के 2 से 3 विधायक अगर ठाकरे सरकार का साथ छोड़ देते हैं तो यह लगभग तय है कि ठाकरे सरकार के लिए विधानसभा में बहुमत साबित करना मुश्किल हो जाएगा। इस तरह से बहुमत के कम नंबर पर महा विकास आघाड़ी आ गई है।
बेशक, एंटीलिया केस, 100 करोड़ की वसूली और ट्रांसफर-पोस्टिंग में रिश्वत के आरोपों में घिरी महाराष्ट्र सरकार शायद सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है. परमबीर सिंह ने इस मामले पर बॉम्बे हाईकोर्ट का रुख किया था. हाईकोर्ट ने भ्रष्टाचार और कदाचार के आरोपों पर सीबीआई जांच को मंजूरी देने का साथ ही 15 दिनों के अंदर आरंभिक जांच पूरी करने का निर्देश दिया. जिसके बाद एनसीपी नेता अनिल देशमुख ने ’नैतिकता’ के आधार पर महाराष्ट्र के गृह मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया. इस पूरे प्रकरण के दौरान अनिल देशमुख और एनसीपी चीफ शरद पवार लगातार कहते रहे थे कि इस्तीफे का सवाल ही नहीं पैदा होता है. खैर, इस्तीफे के बाद देशमुख और उद्धव सरकार ने बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का मन बन लिया है. हालांकि, यह कोशिश हवा को हाथ से पकड़ने की तरह है. महाविकास आघाड़ी सरकार की जितनी फजीहत होनी थी, वो तो हो चुकी है. सीबीआई जांच में पर्दे के पीछे छिपे कई चेहरे सामने आने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है. महाराष्ट्र में सबसे बड़ा दल होने के बावजूद भाजपा सत्ता से बाहर होने का दंश झेल रही है. गठबंधन की महाविकास आघाड़ी सरकार बनने के बाद से ही भाजपा नेताओं का कहना रहा है कि यह सरकार अपने ही अंर्तविरोधों से गिर जाएगी. हाल फिलहाल के प्रकरण को देखकर भाजपा नेताओं के इस कथन को भरपूर बल मिलता दिख रहा है. भाजपा ने शुरुआत से ही इस मामले को पॉलिटिकल सिंडीकेट के तौर पर पेश किया था. सरल और साफ शब्दों में कहा जाए, तो भाजपा को ऐसे ही किसी बड़े मौके की तलाश में थी. भाजपा ने एक ही झटके में पूरी सरकार को कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया है.
देवेंद्र फडणवीस ने केवल एनसीपी ही नहीं शिवसेना को भी अपने निशाने पर लिया हुआ है. फडणवीस ने कहा है कि सारे निर्णय सीएम के आदेश पर होते हैं, इसलिए केवल एनसीपी ही नहीं शिवसेना की भी जिम्मेदारी बनती है. इस बयान से इतर यहां इस बात पर भी ध्यान देना जरूरी है कि एंटीलिया मामले में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) की गिरफ्त में आया सचिन वाजे पूर्व में शिवसैनिक रहा है. भाजपा किसी भी हाल भी में हाथ में आया ये मौका जाने नहीं देगी और सरकार पर अपनी ओर से जितना दबाव बना सकती है, बनाएगी. सीबीआई को 15 दिनों के अंदर जांच पूरी कर बॉम्बे हाईकोर्ट में रिपोर्ट देनी है. जिसके बाद तय होगा कि मामले में एफआईआर दर्ज होगी या नहीं? सीबीआई जल्द ही परमबीर सिंह के बयान लेकर वसूली कांड और ट्रांसफर-पोस्टिंग में रिश्वत के केस से जुड़े दस्तावेज जुटाने लगेगी. जांच आगे बढ़ने के साथ ही और कई नामों का खुलासा हो सकता है. सचिन वाजे 100 करोड़ की वसूली का लक्ष्य मिलने की बात स्वीकार चुका है. परमबीर सिंह ने उद्धव ठाकरे को लिखे अपने पत्र में वाजे को वसूली का लक्ष्य मिलने का जिक्र कर ही दिया था. सीबीआई की जांच की आंच परमबीर सिंह के वसूली के आरोपों के साथ ट्रांसफर-पोसिंग्स के मलाईदार खेल से होती हुई मुख्यमंत्री कार्यालय तक जाती दिखने लगी है.
शरद पवार के हाथ में है सरकार का रिमोट
एनसीपी प्रमुख शरद पवार महाराष्ट्र में महाविकास आघाड़ी सरकार के सूत्रधार हैं. दो विपरीत ध्रुवों वाली पार्टियों को गठबंधन में एक साथ लाने का काम पवार ने ही किया है. पवार को लेकर कहा जाता है कि उद्धव सरकार का रिमोट कंट्रोल उनके पास है. जब वो चाहेंगे, सरकार तभी गिेरेगी. हाल ही में शरद पवार और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की मुलाकात ने कई अटकलों को जोर दिया था. इन्हें अटकलों को कयास तक ही सीमित रखना सही होगा. भाजपा के लिए एनसीपी के साथ जाना ’आत्महत्या’ जैसा होगा. भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी एनसीपी का समर्थन लेना भाजपा को राष्ट्रीय स्तर नुकसान पहुंचा सकता है.
शिवसेना के पास विकल्प नहीं
महाविकास आघाड़ी सरकार गिरने की स्थिति में ’रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय’ की तर्ज पर शिवसेना और भाजपा का पुराना गठजोड़ बहुत मुश्किल नजर आता है. भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को लेकर शिवसेना की ओर से हुए जुबानी हमलों के बाद अगर यह होता भी है, तो दोनों पार्टियों के रिश्तों के बीच गांठ पड़ना निश्चित है. हालांकि, देवेंद्र फडणवीस सीधे तौर पर उद्धव ठाकरे को निशाने पर नहीं लेते हैं, लेकिन भाजपा चाहती है कि शिवसेना भरपूर सबक सीख ले. भ्रष्टाचार से घिरी सरकार का मुखिया बने रहना उद्धव ठाकरे के लिए लॉन्ग टर्म में अच्छा फैसला साबित होता नहीं दिख रहा है.
पुत्रमोह बनेगी बड़ी वजह
सत्ता का मोह, कुर्सी का लालच, पुत्र लोलुपता और कपटी सलाहकार। यह सभी द्वापर युग में हुए अभी तक के सबसे भीषण युद्ध महाभारत के कारण थे। धृतराष्ट्र के पास ये सभी थे। और इन्हीं कारणों ने धृतराष्ट्र को सत्ता और समाज दोनों में निचले पाएदान पर ला पटका। कलियुग में यही रोज देखने को मिलता है और इसे कहते हैं धृतराष्ट्र सिंड्रोम। लेकिन महाराष्ट्र में यह सिंड्रोम एक अलग तरह से देखने को मिला जहां शिवसेना को माया मिली न राम और इसमें धृतराष्ट्र सिंड्रोम से ग्रसित दिखे। उद्धव आदित्य को ही पनपाने में लगे रहे। उनका पुत्रमोह शिवसेना को अब उसके निचले स्तर के राजनीति पर लाकर खड़ा कर दिया है। पहले शिवसेना में यह प्रथा थी कि कि ठाकरे परिवार का कोई भी सदस्य चुनाव नहीं लड़ेगा लेकिन उद्धव ठाकरे के पुत्र मोह ने अपने बेटे को चुनाव में उतारा। इसके बाद उद्धव का अपने बेटे को सीएम की कुर्सी पर बिठाने का सपना और बड़ा होता गया।
भाजपा से गठबंधन तो उन्होंने अपने पुत्र अदित्य ठाकरे को सीएम बनाने के मुद्दे पर किया था लेकिन जब कांग्रेस और एनसीपी के साथ अदित्य के नाम पर सहमति नहीं बनी तो खुद सीएम बनने का ख्वाब देखने लगे। कहा जा सकता है उद्धव ठाकरे को महाभारत में धृतराष्ट्र की तरह ही सत्ता की लालसा ने ऐसे जाल में फंसाया कि वो अब न घर के रहे न घाट के। अब मुख्यमंत्री पद तो गया ही साथ ही इस पार्टी रही सही इज्ज़त और एक हिन्दू पार्टी का तमगा भी गया। एक प्रखर और अपनी विचारधारा से कभी समझौता न करने वाली पार्टी के रूप से अब शिवसेना बाकी पार्टियों जैसी सेक्युलर हो कर रह गयी है। कुल मिलाकर उद्धव ठाकरे धृतराष्ट्र सिंड्रोम ग्रसित हैं और इसी कारण उन्होंने अपनी ही लुटिया डुबो दी है ठीक उसी तरह जैसे धृतराष्ट्र के पुत्र मोह ने महाभारत में कौरवों के अंत का कारण बना था।